परियोजनाएँ

1.   संस्कृत-विद्या को मुस्लिमों का योगदान

ज्ञान-विज्ञान की अपार सम्पदा का स्रोत संस्कृत-विद्या अपनी सार्वभौम उपयोगिता के कारण किसी देश, काल, जाति, धर्म या सम्प्रदाय की मुखापेक्षी न रही। सुदूर देश तथा कालों में इसके अध्ययन-अध्यापन, मनन-चिन्तन, शास्त्र-प्रणयन, संरक्षण आदि का कार्य जाति, धर्म अथवा सम्प्रदाय की चिन्ता किए बगैर चलते रहे। संस्कृत-विद्या के वर्तमान वैभव में कितने ही देश, काल, जाति या धर्म के लोगों का योगदान है, यह कहना मुश्किल है। 
प्राचीन अरब में संस्कृत-विद्या का प्रचार-प्रसार इस्लाम की स्थापना के बाद ही हो गया था। अल्-बिरूनी के भारत आगमन और संस्कृत से अरबी-अनुवादों के बाद इस ओर यूनान और पश्चिमी देशों का ध्यान आकृष्ट हुआ। सल्तनत-काल से लगायत आखिरी मुगल-बादशाह तक संस्कृत-विद्या प्रायः मुस्लिम बादशाहों और स्वतन्त्र मुस्लिम अध्येताओं का प्रिय विषय रहा। 
इस परियोजना के अन्तर्गत संस्थान प्राचीन अरब से लेकर 21-वीं सदी के मध्य तक हुए मुस्लिम बादशाहों और स्वतन्त्र मुस्लिम व्यक्तियों द्वारा संस्कृत-विद्या को दिए योगदान का प्रथम-स्तरीय ऐतिहासिक स्रोतों के समानान्तर अध्ययन करता है। मुस्लिमों द्वारा प्रणीत संस्कृत-कृतियों सहित इतिहास, पुरातत्त्व, संस्कृत-फारसी-अंग्रेजी-उर्दू-हिन्दी तथा प्रान्तीय भाषाओं में निबद्ध प्रथमस्तरीय पुस्तकों के आलोक में सूक्ष्मतः विवेचित तथ्यों को पुस्तकाकार प्रकाशित करता है। इन पुस्तकों की यह खास विशेषता होती है कि इनके परिशिष्ट में सम्बन्धित मुस्लिम विद्वान् की मूल संस्कृत-रचनाओं को व्यवस्थित रूप में प्रकाशित किया जाता है।
विविध कालखण्डों में विभक्त इस परियोजना के अन्तर्गत अनुमानतः 20-25 खण्ड प्रकाश्य हैं। प्रकाशित खण्डों के लिए ‘प्रकाशन’ टैब् का उपयोग किया जा सकता है।

2.   मुस्लिम-संस्कृत-अध्ययन : स्रोत एवं सन्दर्भ

यह परियोजना ‘संस्कृत-साहित्य को मुस्लिमों का योगदान’ शीर्षक पिछली परियोजना की पूर्ति हेतु विस्तृत, व्यापक एवं आधार-भूत परियोजना है। इसके अन्तर्गत विवेच्य संस्कृत-सेवी मुस्लिम शासक, स्वतन्त्र लेखक, विद्वान् या व्यक्ति के सन्दर्भ में फ़ारसी, उर्दू, अंग्रेज़ी आदि भाषाओं में प्रकाशित सामग्रियों का एकत्रित संकलन एवं इनका हिन्दी अनुवाद सहित एकत्र प्रकाशन किया जाना है।

इस परियोजना के अन्तर्गत प्रकाशित पुस्तकों में अध्येता को प्रयोज्य से सम्बन्धित अधिकांश सामग्री एकत्र और एक ही ग्रन्थ में उपलब्ध हो जाएगी। इससे उसके समय और उर्जा में बचत होगी और वह इनका उपयोग अपने शोध की गुणवत्ता में कर सकेगा।

यह परियोजना छः भागों में समाहित होगी जिसमें 32 से अधिक पुस्तकों का प्रणयन सम्भावित है।

3.   अज्ञात एवं दुर्लभ कृति प्रकाशन माला

संस्थान की इस महत्त्वपूर्ण परियोजना का उद्देश्य प्राच्य-विद्या, भाषा तथा विषयों से सम्बन्धित दुर्लभ कृतियों का अन्वेषण, संरक्षण, अध्ययन, पाठालोचन, सम्पादन एवं उनका प्रकाशन है। संस्कृत, प्राकृत, पालि, हिन्दी आदि भारतीय प्रान्तीय भाषाओं तथा फ़ारसी, अरबी, अंग्रे़जी, फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाओं में संरक्षित प्राच्य-कृतियों को चिह्नित कर संस्थान इनकी प्राप्ति तथा यथासम्भव इनके प्रकाशन में दत्तचित्त है। 
संस्कृत-साहित्य के गुमनाम रचनाकारों, शास्त्रकारों और टीकाकारों को लक्ष्य कर इस ओर स्वतन्त्र रूप से हम ‘टीमवर्क’ करते हैं। इन रचनाकारों की कृतियों का अन्वेषण कर सम्बन्धित कृतिकार के विशिष्ट अध्येता को चिह्नित करते हैं और उसके द्वारा इन रचनाओं को सम्पादित करा प्रकाशित करते हैं। इस क्रम में नासिक (महाराष्ट्र) के अच्युतराव मोडक (१७७८-१८३९ ई०) की दुर्लभ तथा अप्रकाशित कुछ रचनाएँ हमने प्रकाशित कीं जबकि उनका उपलब्ध पूरा साहित्य प्रकाशित करने पर हम उद्यत हैं। इसी प्रकार १७-वीं सदी में बागुलान (नासिक, महा०) निवासी रुद्रकवि की रचनाएँ भी हमारे वरीयताक्रम पर हैं। फ़िराक़ गोरखपुरी द्वारा हिन्दी में अनूदित ‘उमराव जान अदा’ के संस्थान द्वारा पुनः प्रकाशन ने हिन्दी-उर्दू दुनिया को हैरान् कर दिया था।

संसाधनों के अभाव वश वर्तमान में यह संस्थान केवल संस्कृत, प्राकृत, पालि, हिन्दी तथा उर्दू भाषा एवं साहित्य की कृतियों तक ही सीमित है और सम्बन्धित भाषा एवं साहित्य की अज्ञात तथा दुर्लभ कृतियों के अन्वेषण, अध्ययन, पाठालोचन, पाठ-सम्पादन एवं प्रकाशन पर दत्तचित्त है।

4.   अनूदित साहित्य शृंखला

संस्कृत-साहित्य की अभिवृद्धि हेतु प्रवर्तित यह एक बहु-आयामी और बहु-उद्देश्यीय परियोजना है। इसके अन्तर्गत देश तथा विदेश की भाषाओं में प्रणीत कालजयी साहित्यिक कृतियों के संस्कृत-अनुवाद किए एवं कराए जाते हैं। इसी प्रकार संस्कृत में उपलब्ध कालजयी साहित्यिक कृतियों का विविध भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी किए एवं कराए जाते हैं।

संसाधनों के अभाव वश वर्तमान में अभी हम कुछेक भारतीय भाषाओं से संस्कृत और संस्कृत से कुछेक चुनिन्दा भारतीय भाषाओं में ही अनुवाद-कार्य कर पा रहे हैं।

इस परियोजना के तहत अभी तक अत्यन्त महत्त्व की पाँच कृतियों का प्रकाशन हो चुका है।

5.       लौकिक-संस्कृत-साहित्य-विश्वकोष (25 खण्डों में)

लौकिक-संस्कृत-साहित्य की समस्त विधाओं के कवि, काव्यशास्त्री, टीकाकार, आश्रयदाताओं के सम्बन्ध में प्रथम-स्तरीय प्रामाणिक साक्ष्यों पर आधारित सूचना देने वाले विश्वकोश का निर्माण संस्थान के प्रमुख उद्देश्यों में से एक है। अपने स्थापना-वर्ष के साथ ही संस्थान ने इस ओर कार्य प्रारम्भ कर दिया था और अपने सीमित संसाधनों के बावजूदज लगातार इस पर कार्य प्रवर्तित है। वर्तमान में इस परियोजना के अन्त्तर्गत केवल ‍‘साहित्य-संकलन’ और ‘साहित्य-वर्गीकरण’ का कार्य ही किया जा रहा है, किन्तु यदि सार्वकारिक अथवा सार्वजनिक या किसी औद्योगिक क्षेत्र से हमें संसाधन उपलब्ध हो तो हम व्यवस्थित ‘विश्वकोष’ के निर्माण हेतु सन्नद्ध हैं।

वर्तमान में लगभग 3000 व्यक्ति और 5000 कृतियों का नाम-संग्रह कार्ड-विधि द्वारा किया जा चुका है और ‘आधुनिक’ तथा ‘वर्तमान’ संस्कृत-साहित्य-संकलन हेतु एक स्वतन्त्र परियोजना (आधनुकि-संस्कृत-साहित्य-संकलन-परियोजना) द्वारा सम्बन्धित साहित्य संकलित किया जा रहा है।

विश्वकोष के निर्माण में लेखकीय भूमिका निर्वाह हेतु सक्षम व्यक्तियों से अपील / नियमावलि एवं परियोजना-परिचायिका.pdf

6.   संस्कृत-साहित्य का इतिहास (40 खण्डों में)

7.   हिन्दी-अंग्रेज़ी-उर्दू भाषीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित संस्कृत-विद्या विषयक लेखों की सूचनात्मक विवरणी

यह बड़ा ही महत्त्वाकांक्षी परियोजना है। इसके अन्तर्गत भारत तथा भारतेतर देशों से प्रकाशित अंग्रजी, हिन्दी, उर्दू आदि भाषाओं के प्राचीन पत्रिकाओं में उपलब्ध संस्कृत-विद्या एवं विषयों से सम्बन्धित ‘लेखों का संग्रह’ एवं उनकी ‘सूचनात्मक-विवरणी’ का निर्माण किया जाना है। संस्थान के संस्थापक सदस्य डॉ० प्रवीणकुमार मिश्र ने वर्ष 2007-2010 ई० के मध्य, तीन वर्षों के परिश्रम से हिन्दी की विश्रुत दो पत्रिकाओं (सरस्वती एवं माधुरी) को अपना कार्यक्षेत्र बनाया और ‘लेखों की सूची’ एवं ‘सूचनात्मक-विवरणिका’ तैयार कर संस्थान को समर्पित की। इसी प्रकार संस्थान के संस्थापक डॉ० प्रतापकुमार मिश्र ने नागरीप्रचारिणी-पत्रिका को अपना कार्यक्षेत्र बना कर कुछ ‘लेख’ एवं  आंशिक ‘सूचनात्मक-विवरणी’ तैयार की किन्तु यह कार्य पूरा न हो सका।

            संस्थान के संस्थापक मण्डल की सदस्या डॉ० रश्मि कुमारी ने वर्ष 2013 में भारत-सरकार की Post Doctoral परियोजना के अन्तर्गत ‘विश्वविद्यालय-अनुदान-आयोग’ की वित्तीय सहायता के अध्यधीन Bhandarakar Oriental Research Institute (Pune) की विश्वविश्रुत रिसर्च-एनल में प्रकाशित लेखों की ‘सूची’ एवं ‘सूचनात्मक विवरणिका’ पूरे सात वर्ष के कठोर परिश्रम के बाद आयोग को समर्पित की। यह ‘सूची’ और ‘विवरणिका’ संस्थान के पुस्तकालय में अनुसन्धित्सुओं के उपयोग के लिए उपलब्ध है।

8.   संस्कृत-फ़ारसी, संस्कृत-उर्दू कोष

संस्थान की एक महत्त्वाकांक्षी परियोजना। इस ओर समय-समय पर कुछेक स्वनामधन्य आचार्यों ने कलम उङ्गाई है किन्तु उनका प्रतिफल एक कोष मात्र रहा। यह परियोजना दो भागों में विभक्त है-
1. व्यक्ति-खण्ड : इसके अन्तर्गत समस्त भेदोपभेद सहित दृश्य एवं श्रव्य विधा के संस्कृत-रचनाधर्मियों, साहित्यशास्त्री, टीकाकार, इनके आश्रयदाता आदि पर ऐतिहासिक साक्ष्यों के समानान्तर सूचनाएँ संग्राह्य हैं।
2. रचना-खण्ड : इसके अन्तर्गत समस्त भेदोपभेद सहित दृश्य एवं श्रव्य विधा के संस्कृत-रचनाधर्मियों, साहित्यशास्त्री, टीकाकार आदि की समस्त कृतियों पर परिचय-विवेचन-समीक्षा-आलोचना-परिपूर्ण सूचनाएँ संग्राह् एवं प्रकाश्य हैं। 

 संसाधनों के अभाव-वश इस परियोजना को आज तक प्रारम्भ भी नहीं किया जा सका है।

9.   फ़ारसी एवं उर्दू में संस्कृत-साहित्य का इतिहास

‘फारसी और संस्कृत’ तथा ‘उर्दू एवं संस्कृत’ का भाषिक, भाषावैज्ञानिक तथा साहित्यिक अन्तःसम्बन्ध जदद्विख्यात है। इन भाषाओं के विद्वान् तथा लेखक इनके अन्तःसम्बन्धों और साहित्यिक अवदानों पर पिछली सदी से ही कार्य कर रहे हैं। कई उल्लेखनीय कार्य प्रकाशित भी हुए हैं। किन्तु फ़ारसी-भाषा में संस्कृत-साहित्य का व्यवस्थित इतिहास आज तक नहीं लिखा गया है। यही हाल उर्दू में भी है। शोध, सन्दर्भ-परक, भाषिक, साहित्यिक तथा अनुवाद-कार्य करने वाला फ़ारसी एवं उर्दू-भाषी बौद्धिक वर्ग संस्कृत-साहित्य के इतिहास को अपनी भाषाओं तथा लिपियों में ढूँढता है किन्तु ऐसे किसी प्रकाशन के अभाव से निराश होता है।

इस कार्य पर इस संस्थान के पुराने हितैषी डॉ० अब्दुल ग़नी (तैलंगाना) पिछले दो-तीन वर्षों से कार्यरत हैं और छोट-छोटे प्रयत्नों के द्वारा कुछेक पुस्तिकाएँ उर्दू में प्रकाशित की हैं। यदि भारत-सरकार या सार्वजनिक या औद्योगिक क्षेत्रों से सहायता उपलब्ध हो; संस्थान इस परियोजना पर तत्काल कार्य प्रारम्भ कर सकता है।

10.      प्राच्य-भाषाओं से सम्बन्धित पाठ्य-पुस्तकों का निर्माण

इस परियोजना के अन्तर्गत संस्कृत-प्राकृत-फ़ारसी सहित अन्यान्य प्राच्य-भाषाओं के सरल एवं प्रभावी शिक्षण-परक सामग्रियों का अनुसन्धान, निर्माण एवं प्रकाशन सम्मिलित है। इस क्रम में प्रभावी संस्कृत-शिक्षण हेतु कतिपय पुस्तिकाओं (सार्वभौम-धातुरूपावलि एवं सार्वभौम-शब्दरूपावलि) पर कार्य अपने अन्तिम चरण में है।

11.  प्राच्य-मनीषियों के कर्तृत्व एवं उनके चित्रों का संग्रह

इस परियोजना के अन्तर्गत यूरोप, अमेरिका, एशिया, एशिया-माइनर (तुर्किस्तान) आदि भूभाग सहित समूचे विश्व में प्राच्य-विद्या के उल्लेखनीय अध्येता विद्वानों के व्यक्तित्व, कर्तृत्व एवं उनके चित्रों का संग्रह समाहित है। 19-वीं एवं 20-वीं सदी में जर्मनी, पोलैण्ड, फ्रांस, इटली, इंग्लैंड, अमेरिका आदि पश्चिमी-देशीय तथा प्राचीन अरब, फ़ारस, ईरान आदि देशों के प्राच्यविद्या-सेवियों के लगभग 150 दुर्लभ चित्र संस्थान में उपलब्ध हैं।

12.       समकालीन-संस्कृत-काव्य-धारा

लोक एवं लोकतान्त्रिक सम्प्रत्ययों तथा मूल्यों की मुखर अभिव्यक्ति समसामयिक संस्कृत-कविता की सबसे बड़ी आवश्यकता है। हालाँकि ‘लोक’ और उसकी चेतना हर युग में संस्कृत-कविता के प्राण रहे हैं किन्तु यह प्राण-शक्ति लोक एवं लोकचेतना से उतनी अनुप्राणित नहीं रही जितना अन्यान्य काव्य-विषयों और क्षेत्रों से।

संस्कृत-कविता में समसामयिक ‘लोक’ और ‘लोकचेतना’ की अभिव्यक्ति को महत्त्व देते हुए ऐसी कविताओं द्वारा संस्कृत-साहित्य की श्रीवृद्धि इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य है। संस्थान इस परियोजना के द्वारा वर्तमान संस्कृत-कवियों की उन कविताओं, काव्यों और काव्यसंग्रहों का स्वागत करता है जिनमें समसामयिक ‘लोक’ एवं ‘लोकचेतना’ अपने स्पष्ट और निर्भीक स्वर में प्रवाहित होती हो।

इस परियोजना के तहत अभी तक संस्थान ने एक मात्र कृति ‘काशीविश्वनाथ-कॉरीडोर-पञ्चाशिका’ का प्रकाशन किया है।

13.       आधुनिक-संस्कृत-साहित्य-सङ्कलन-परियोजना

संस्थान की दो महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं की प्रपूर्ति में सहायक एक अङ्गीभूत परियोजना है। पिछली दो परियोजनाओं ‘संस्कृत-साहित्य का बृहद् इतिहास’ (40 खण्ड) एवं ‘लौकिक-संस्कृत-साहित्य-विश्वकोश’ (25 खण्ड) के निर्माण की प्रविधियों में एक प्रविधि यह रखी गई थी कि  विविध कालखण्डों में साहित्य के विविध पक्षीय कवियों तथा रचनाओं पर सामग्री संस्थान के षाण्मासिक-पीयर रिव्यूड् जर्नल ‘प्रत्नकीर्ति’ में स्वतन्त्र-आलेख, रिव्यू, समीक्षा, अलोचना के ज़रीए भी इकट्ठी की जाए। पत्रिका में प्रकाशित यह सामग्री अपने प्रसंस्कृत रूप में ‘संस्कृत-साहित्य के बृहद् इतिहास’ में तथा पुनः प्रसंस्कृत सामग्री ‘लौकिक-संस्कृत-साहित्य-विश्वकोश’ में प्रकाशित हो।

            प्राचीन, मध्यकालीन तथा उत्तर-मध्यकालीन कालखण्डों में हुए कवि और उनकी कृतियाँ; हस्तलिखित रूप में संरक्षित हैं और समय-समय पर सम्पादित हो प्रकाशित हुआ करती हैं। इनके कवि भी विवेचित हुआ करते हैं। प्रकाशित कृतियाँ समय-समय पर प्राप्त होती रहेंगी। किन्तु ‘आधुनिक’ (1857-1947 ई.), ‘वर्तमान’ (1947-200 ई०) तथा ‘अद्यतन’ (2000 ई० से आज तक) संस्कृत-साहित्य का संग्रह बड़ा कटिन कार्य है। कवियों की कृतियाँ किसी एक स्थान पर संग्रहीत न होने के कारण दुर्लभ होती जा रही हैं।

            अतः संस्थान ने इस परियोजना द्वारा ‘वर्तमान’ एवं ‘अद्यतन’ संस्कृत-साहित्य का संग्रह का कार्य प्रारम्भ किया। इस परियोजना में कवियों से आग्रह है कि वे अपनी पूर्व में तथा इसके बाद प्रकाशित होने वाली कृतियों की एक-एक प्रति संस्थान को भेजें। कवियों द्वारा प्रेषित उनका साहित्य संस्थान के पुस्तकालय में संरक्षित रखा जाएगा। इसे सामान्य पाठकों, अनुसन्धान-कर्मियों, शोधार्थियों को पढने एवं सन्दर्भ परक कार्यों हेतु उपलब्ध कराया जाएगा। साथ ही संस्थान उपर्युक्त अपनी दो परियोजनाओं की प्रपूर्ति में इनका उपयोग कर सकेगा।

            इस परियोजना से सम्बन्धित विशेष ज्ञातव्य तथ्य अलग से पी०डी०एफ० फाइल में अपलोड् किया जा रहा है। अपने उद्देश्यों के अनुरूप संस्थान इस परियोजना को ‘काशी में आधुनिक-संस्कृत-साहित्य-संग्रह’ के नाम से भी पुकारती है।

14.      सभा-सम्मेलन-कार्यशाला आदि

        प्राच्यविद्या, भाषा एवं विषयों से सन्दर्भित सभा-सम्मेलनों का आयोजन इस संस्थान के महत्त्वपूर्ण कार्य हैं। भारतीय एवं भारतेतर देशों से सम्बन्धित प्राच्य-मनीषियों की स्मृति में ‘स्मृति-सन्ध्या’ ‍‘जयन्ती’ ‘पुण्यतिथि’ आदि विधि द्वारा सङ्केतित मनीषी के व्यक्तित्व, कर्तृत्व एवं सम्बन्धित विद्या-विभाग को उसके योगदान पर महत्त्वपूर्ण ‘व्याख्यान’ कराए जाते हैं।

संस्कृत-प्राकृत आदि भाषाओं के प्रशिक्षण हेतु विविध प्रकार के ‘शिक्षण-शिविरों’ का सञ्चालन, संस्कृत-हिन्दी, हिन्दी-संस्कृत, संस्कृत-उर्दू, उर्दू-संस्कृत आदि भाषाओं में पारस्परिक अनुवाद परक कार्यशालाओं का आयोजन, ‘बाल-दिवस’ ‘शिक्षक-दिवस’ ‘वसन्त-पञ्चमी’ आदि दिवसों में संस्कृत एवं अन्य भारतीय प्राच्य भाषाओं में बच्चों की अभिरुचि और उत्कण्ठा बनाए रखते हुए इन भाषाओं और इनके साहित्य की ओर उन्हें प्रेरित करने के उद्देश्य से विविध प्रकार के सांस्कृतिक, शैक्षणिक, साङ्गीतिक कार्यक्रमों; प्रतियोगिताओं का आयोजन यह संस्थान अपने सीमित संसाधनों के अध्यधीन किया करता है।

इन और ऐसी परियोजनाओं में सार्वजनिक क्षेत्रों द्वारा यदि सहायता और संसाधन प्राप्त हों तो इन परियोजनाओं के अधीन संस्थान और भी बेहतर और भी बेहतरीन् कुछ कर सकता है।