सर्वदेशवृत्तान्त संग्रह or ‘अकबरनामः’

अज्ञात एवं दुर्लभ कृति-प्रकाशन माला, संख्या-2

सर्वदेशवृत्तान्तसंग्रह or ‘अकबरनामः’

मूल फ़ारसी - अबुल फ़ज़्ल (1578-1596)

अनुवाद - महेश ठक्कुर (1578-1580)

सम्पादन - प्रताप कुमार मिश्र

प्रथम संस्करण - 2012 ई.

भूमिका-74,+174 पृष्ठ, साइज़ - 6' x 9', वज़न - 500 ग्राम.

ISBN: 978-81-906145-4-2 (H.B.)

संस्थान द्वारा प्रकाशित

मूल्य: 500/- (1-एप्रिल 2022 से संशोधित मूल्य) छूट के बाद 450/-

 

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तीन तथ्य संक्षेप में इस ग्रन्थ की विशिष्टता बताने हेतु पर्याप्त होंगे - 1. प्रस्तुत ग्रन्थ ज्ञात संस्कृत-साहित्य के इतिहास की दूसरी कृति है जो किसी विदेशी (फारसी) भाषा से संस्कृत में अनूदित हुई, 2. अनुवाद का निमित्त-कारण बना महान् मुग़ल सम्राट् अकबर; जिसके आदेश पर अबुल फ़ज़्ल ने ‘अकबरनामः’ का निर्माण किया, 3. पर्सियन ‘अकबरनामः’ को संस्कृत में रूपान्तरित करने वाले मैथिल अनुवादक महेश ठक्कुर को अकबर से दरभंगा-राज प्राप्त हुआ जिससे मिथिला पर ‘खण्डबला-राजवंश’ की स्थापना हुई और भारत के स्वतंत्र होने तक इस वंश ने मिथिला पर राज्य किया.

Colin Mackkenzie ने 1796-1821 के बीच ने ‘दकन’ इसकी एक हस्तलिखित प्रति प्राप्त की. 1819 में वे लंदन वापस चले गए और यह पाण्डुलिपि भी उनके साथ लंदन गई। 1821 ई. में Colin Mackkenzie की मृत्यु हो गई। 1833 में उनका व्यक्तिगत पुस्तकालय London Commanwealth Relation Library को भेंट कर दिया गया जहाँ 3 दिसंबर 1833 को ‘सर्वदेशवृत्तान्तसंग्रह’ की यह प्रति इस पुस्तकालय में रजिस्टर्ड हुई।

1872 ई. के आस-पास थ्रेयोडोर ऑफ्रेक्ट ने इसका विवरण लिया जिसे उन्होंने १८७७ में अपनी सूची में प्रकाशित किया। आफ्रेक्ट की सूचना के बाद 1900-1910 के आस-पास दरंभगा-नरेश सर् कामेश्वर सिंह ने अपने पूर्वजों की थाती इस पुस्तक की प्रति की एक माइक्रोफिल्म लंदन से मंगाई।

1922 में चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने इस पर 20 पंक्तियों की एक टिप्पणी प्रकाशित की। 1922 से 1930 के बीच सर् गंगानाथ झा जी ने इसे संपादित कर प्रकाशित करना चाहा किन्तु ऐसा नहीं हुआ। 1930-35 के बीच उन्हीं के पुत्र अमरनाथ झा ने भी इसे संपादित करना चाहा किन्तु वे भी इसे प्रकाशित नहीं कर सके।

अंततोगत्वा 1962 ई. में सुभद्र झा ने इसे संपादित कर प्रकाशित कराया किन्तु दैव-दुर्योग से इसकी एक भी प्रकाशित प्रति प्रेस से बाहर न आ सकी। कहते हैं कि प्रेस में आग लगने के कारण इसकी सारी प्रतियाँ जल गईं। प्रकाशित फर्मों को व्यवस्थित कर यथा-कथमपि इसकी एक-दो प्रतियाँ तैयार की गईं जिनकी छायाप्रति मात्र आज उपलब्ध है।


(प्रकाशित पुस्तक का फ्लैप-मैटर)