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अनूदित साहित्य शृंखला, संख्या-2


  • उमराव जान अदा (संस्कृत अनुवाद)
  • उर्दू उपन्यास : मिर्ज़ा मुहम्मद हादी रुस्वा
  • संस्कृत अनुवाद : श्वेतकेतु
  • सम्पादक : डॉ. प्रदीप कुमार मिश्र
  • डॉ. प्रियव्रत मिश्र
  • प्रथम संस्करण - 2016 ई.
  • भूमिका (अंग्रेज़ी) 60,+218 पृष्ठ
  • विविध चित्रों से सुसज्जित
  • ISBN: 978-81-906145-6-6 (H.B.)
Price: 500/-

यूँ तो मिर्ज़ा रुस्वा से पहले भी उर्दू में नॉविलें लिखी और पढी जाती रहीं लेकिन उर्दू-साहित्य के इतिहास में ‘उमराव जान अदा’ उपन्यास की कसौटी पर खरा उतरने वाला ‘पहला’ ‘क्लासिकल्’ और ‘सबसे अधिक पढा जाने वाला’ उपन्यास है। स्व. खुशवन्त सिंह की यह टिप्पणी ‘Ruswa is one of the best Urdu prose writer of all times’ सही मायने में उर्दू गद्य-साहित्य के इतिहास की घोषणा है। यक़ीनन मिर्ज़ा रुस्वा उर्दू गद्य-लेखन में ‘मील का पत्त्थर’ हैं।

यह मिर्ज़ा रुस्वा की उपन्यास-कला का ही परिणाम है कि उमराव जान; वास्तविकता और कल्पना की सम-भावभूमि पर विवेचकों की पुरजोर कोशिशों को दरकिनार करती हुई पिछले ११६ वर्षों से अपने पढने वालों के दिलों में राज कर रही है.... ‘वास्तविक’ और ‘काल्पनिक’ की गुत्त्थियों में जितनी सुलझायी जाती है उतना ही ‘मिथक’ बनती जाती है.... और यही कारण है कि उमराव जान आज समूचे एशिया महाद्वीप के साहित्य-संसार में एक प्रमुख और अविस्मरणीय स्त्री-पात्र के रूप में याद की जाती है।

संस्कृत में इस उपन्यास के अनुवाद की आवश्यकता थी या नहीं, है या नहीं या फिर होगी या नहीं; - के रूप में जो हंगामः बरपा होना है; बरपा करेगा, जो तहलका मचना है; मचा करेगा, फ़िल-वक़्त तो अनुवादक को मिर्ज़ा की भाषा-शैली और तर्ज़े-बयान की संस्कृत-प्रस्तुति एक प्रकार की चुनौती और इस चुनौती को स्वीकार करना एक दुर्निवार आवश्यकता सी प्रतीत हुई थी।

वैसे सच पूछा जाए तो संस्कृत-उपन्यास विधा को न केवल इस उपन्यास बल्कि इस तरह के कितनी ही भाषाओं के कई उपन्यासों के अनुवाद की ज़रूरत है.... वक़्त रहते जिन भाषाओं ने इस ज़रूरत को परखा और जोख़िम उठाया, कहना नहीं होगा विश्व-साहित्य की क़तार में जा खड़ी हुईं।

उर्दू-साहित्य की इस विश्व-प्रशंसित और कालजयी कृति को मूल उर्दू से संस्कृत में अनूदित करने का जोखिम हमने उठाया है और बिना सोचे समझे उठाया है।..... सोच-समझकर जोखिम उठाने की क़वायद और रिवायत पर अगर्चः ग़ौर कीजिए तो आज तो चिट्ठी लिखने का भी जोखिम कोई नहीं उठाता........ संसार भर की भाषाओं से उनका विकल्पहीन ‘पत्र-साहित्य’ विलुप्त हो गया और सोचते-समझते रहने वाले मुँह ताकते रह गए......

हासिले कलाम कि अनूदित साहित्य-शृंखला की हमारी यह दूसरी प्रस्तुति सहृदय पाठकों को आनन्दित करेगी इसमें हमें कोई सन्देह नहीं।


(प्रकाशित पुस्तक का फ्लैप् मैटर्)

प्रस्तुत अनुवाद पर प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी की समीक्षा