अज्ञात एवं दुर्लभ कृति-प्रकाशन माला, संख्या-4

- उमराव जान अदा
- (लिप्यन्तरण एवं हिन्दी-अनुवाद)
- मूल उर्दू: मिर्ज़ा मोहम्मद हादी ‘रुस्वा’
- लिप्यन्तरण/अनुवाद: फ़िराक़ गोरखपुरी
- सम्पादन: श्वेतकेतु
- प्रथम संस्करण: 2021 A.D.
- भूमिका 24, + 216 पृष्ठ, P.B. (Flap)
- ISBN: 978-81-951926-2-5
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी ‘रुस्वा’ के विश्वविश्रुत उर्दू-उपन्यास ‘उमराव जान अदा’ के कई हिन्दी अनुवाद हुए मगर आपको पढ़ना या ख़रीदना हो तो बाज़ार में एक भी प्रामाणिक संस्करण नहीं मिलेगा। क्या ही आश्चर्य की बात है कि विश्व-साहित्य में प्रतिष्ठित इस उपन्यास के इटालियन, जर्मन, पोलिश, अंग्रेज़ी आदि यूरोपीय और बंगला, मराठी, तमिल आदि भारतीय भाषाओं में अनुवाद सहज सुलभ हैं, किन्तु हिन्दी में ढूँढो तो नहीं मिलता।
इसका एक हिन्दी अनुवाद विश्व-विश्रुत उर्दू-शाइर फ़िराक़ गोरखपुरी (प्रो. रघुपति सहाय) ने भी किया था और इसे १९६१ ई. में प्रकाशित भी किया था। मगर घोर आश्चर्य यह कि हिन्दी तो हिन्दी; चुनाँचे उर्दू-दुनिया भी फ़िराक़ के इस कर्तृत्व से अपरिचित है।
२०१६ ई. में संस्कृत-साहित्य के मूर्द्धन्य संस्कृत-कवि आचार्य-जगन्नाथ पाठक (इलाहाबाद) के सहयोग से हमें फ़िराक़ के इस अनूदित संस्करण की मुद्रित प्रति प्राप्त हुई थी। उर्दू-साहित्य के इतिहास में इस संस्करण का कोई हवाला नहीं। जब हमने इसकी चर्चा उर्दू के नामवर आचार्यों से की वे आश्चर्यचकित हो उठे। प्रो. शम्सर्रहमान फ़ारुक़ी साहब (इलाहबाद) ने इस किताब को देखते ही कहा था कि - ‘संस्कृत-अनुवाद को छोड़ पहले इसे फिर से प्रकाशित करो।’ प्रो. ज़फ़र अहमद सिद्दीक़ी (अलीगढ़) साहब का भी यही कहना था। प्रो. सैयदहसन अब्बास (वाराणसी) ने समूचे इंडियन् सब्काँटिनेंट में उपलब्ध फ़िराक़ की कृतियों की सूची का हवाला देते हुए इसे उर्दू-साहित्य में नामालूम कृति बताते हुए इसे छापने पर ज़ोर दिया। हिन्दी-वालों को तो ख़ैर इसकी कोई ख़बर ही न थी।
बड़ी जद्दो जहद और आर्थिक कठिनाईयों के बावजूद इस संस्करण को हमने पुनः प्रकाशित किया है। इस आशा के साथ कि हिन्दी-पाठकों की साहित्य-पिपासा हमें नुक़सान नहीं होने देगी और ऋण लेकर प्रकाशित इस पुस्तक का प्रकाशन-व्यय हमें प्राप्त हो जाएगा। फ़िराक़ साहब ने इसका हिन्दी अनुवाद कम और लिप्यन्तरण अधिक किया है। मूल उपन्यास में आए अरबी, तुर्की या फ़ारसी के कठिन शब्दों के मानी देने में फ़िराक़ ने क़ोताही की थी, हमने उसे पूरा कर दिया है। फ़िराक़ ने अस्ल उर्दू के अधिकांश फ़ारसी मुहावरे, लोकोक्तियाँ, सूक्तियाँ और संवाद हिन्दी पाठकों पर भारी होने के ख़ौफ़ से छोड़ दिया था। हमने इन्हें भी हिन्दी सहित प्रस्तुत कर दिया है।